मरीचझापी का शाप बंगाल में लेफ्ट ख़त्म हुआ अब तृणमूल का भी आखिरी ताबूत की कील साबित होगा.
मरीचझापी कांड और कुछ नहीं बल्कि लेफ्ट राजनीतिक की गलतियों का एक नमूना है. 26 जनवरी, 1979 को अवैध तरीके से रह रहे लोगों को हटाने के लिए नरसंहार किया गया.
देखने में सबकुछ लगभग जालियांवाला बाग की तरह ही था. सामने 40,000 के आसपास निहत्थे, मजबूर बच्चे, औरत और मर्द थे और दूसरी तरफ सैकड़ों की संख्या में पुलिस और अर्धसैनिक बल के हथियारबंद जवान. सबसे बड़ा फर्क ये था कि जालियांवाला बाग में पुलिस ब्रिटिश सरकार की थी और यहां पुलिस पश्चिम बंगाल सरकार की थी.
यह सब उस जगह हुआ जहां गंगा की दो धाराएं हुगली और पद्मा समुद्र में मिलती हैं. यह नरसंहार मरीचझापी द्वीप पर हुआ. 26 जनवरी, 1979 को पश्चिम बंगाल की लेफ्ट फ्रंट सरकार ने तय किया कि मरीचझापी द्वीप चूंकि टाइगर रिजर्व का हिस्सा है और यहां किसी को बसने की इजाजत नहीं दी जा सकती, इसलिए वहां अवैध तरीके से रह रहे लोगों को हटाया जाएगा. इस आदेश को अमल में लाने के लिए आर्थिक नाकाबंदी, कर दी गई. 17 मई, 1979 को राज्य के सूचना मंत्री ने पत्रकारों को बताया कि मरीचझापी को खाली करा लिया गया है.
मरीचझापी में उस दौरान क्या क्या हुआ
मरीचझापी की घटना बमुश्किल 40 साल पुरानी है. लेकिन इसका बहुत कम ही ब्यौरा मिलता है. पत्रकार दीप हालदार ने मरीचझापी कांड के अलग अलग किरदारों, जिंदा बचे लोगों, उनके नेताओं, उस समय रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार, अफसर आदि से बात करके बिखरे किस्से को समेटने की कोशिश अपनी किताब ब्लड आइलैंड में की है. उन्होंने इस घटना का किस्सा अपने पिता दिलीप हालदार से सुना था. दिलीप हालदार ने सिर्फ मरीचझापी पर तो नहीं, लेकिन पूरी रिफ्यूजी समस्या पर एक किताब बंगाल के विभाजन के बाद से दलितों पर अत्चाचार लिखी है. इसके अलावा प्रसिद्ध लेखक अमिताव घोष की किताब द हंग्री टाइड्स की पृष्ठभूमि भी मरीचझापी के ये घटना ही है. इसके अलावा उस समय के अखबारों, खासकर आनंद बाजार पत्रिका और स्टेट्समैन में मरीचझापी की रिपोर्ट छपी हैं.
वो कौन लोग थे, जिन्होंने मरीचझापी को अपना घर बना लिया था?
ये कहानी भारत के विभाजन से शुरू होती है. भारत की विभाजन पूरब और पश्चिम दो तरफ हुआ था. पश्चिम में पंजाब का विभाजन त्रासद तो था, लेकिन वो हिस्सा जल्द ही स्थिर हो गया. लेकिन पूरब में बंगाल का विभाजन एक निरंतर त्रासदी लेकर आया.
बंगाल का विभाजन ब्रिटिश सरकार की उस योजना के तहत हुआ जिसमें बंगाल के हिंदू और मुस्लिम बहुल इलाके के प्रतिनिधियों को विभाजन के पक्ष या विपक्ष में वोट डालने के लिए कहा गया. अगर इनमें से किसी भी हिस्से के प्रतिनिधियों का ज्यादा वोट विभाजन के पक्ष में होता, तो विभाजन का फैसला होना था. मुस्लिम बहुल इलाके के प्रतिनिधियों ने एकीकृत बंगाल के लिए वोट डाला जबकि हिंदू बहुल इलाके के प्रतिनिधियों- कांग्रेस, हिंदू महासभा, कम्युनिस्ट- ने विभाजन के पक्ष में वोट डाला. बंगाल एकीकृत रहता तो मुस्लिम बहुल होता.
इस वोटिंग के बाद आखिरकार बंगाल का बंटना तय हो गया. लेकिन बीच में एक चीज फंस गई. बंगाल की शिड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के प्रतिनिधियों ने विभाजन के खिलाफ, एकीकृत बंगाल के लिए वोट डाला. पूर्वी बंगाल में दलित और मुसलमान दोनों ज्यादातर छोटे किसान और खेत मजदूर थे और मिल कर रहे रहे थे, तो दलितों ने विभाजन के बाद भी पूर्वी बंगाल में रहना तय किया. उनके नेता जोगेंद्रनाथ मंडल आजाद पाकिस्तान के पहले कानून मंत्री बने.
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बंगाल के दलितों ने उस समय सांप्रदायिक नहीं होने का फैसला किया था, जिसकी उन्हें बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ी.
विभाजन को लेकर पूर्वी बंगाल के दलितों का आकलन पूरी तरह गलत साबित हुआ. नए राष्ट्र पाकिस्तान में उन पर अकथनीय अत्याचार होने लगे और इसके साथ ही शुरू हुआ वहां से भारत की ओर पलायन. लेकिन भारत अब इन अवांछित लोगों को स्वीकार करने को तैयार नहीं था. आखिर ये वो लोग थे जिन्होंने विभाजन के समय पाकिस्तान में रहने का विकल्प चुना था. पलायन का सिलसिला तब और तेज हो गया जब शेख मुजीबुर्रहमान के नेतृत्व में बांग्लादेश का मुक्ति संग्राम छिड़ गया. इस दौरान एक करोड़ से ज्यादा हिंदू दलित भारत आ गए. भारत ने उन्हें नागरिकता नहीं दी और उन्हें ट्रांजिट कैंपों में रखा गया. इस कल्पना के साथ कि कभी उन्हें बांग्लादेश वापस भेज दिया जाएगा.
लेकिन जो लोग भारत आ गए उन्हें बंगाल की खाड़ी में फेंका तो नहीं जा सकता था. उन्हें भारत के उन इलाकों में भेज दिया गया, जहां लोग आम तौर पर रहना नहीं चाहते. मसलन अंडमान द्वीप समूह, छत्तीसगढ़ के दंडकारण्य जंगल, उत्तर प्रदेश के मलेरिया प्रभावित तराई क्षेत्र आदि. कालांतर में इनके वोटर कार्ड बन गए. कई ने आधार कार्ड भी बनवा लिए लेकिन उनकी नागरिकता का मामला संशय में रहा. उन्हें अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र भी नहीं मिला. सबसे ज्यादा बंगाली हिंदू रेफ्यूजी अंडमान में हैं और वहां अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र जारी ही नहीं होता.
दंडकारण्य से मरीचझापी: वादों के टूटने की त्रासदी
1977 में पश्चिम बंगाल में लेफ्ट फ्रंट की सरकार बनी. उससे पहले लेफ्ट फ्रंट के नेताओं ने आश्वासन दिया था कि दंडकारण्य के शरणार्थियों को पश्चिम बंगाल में बसाया जाएगा. लेफ्ट फ्रंट के नेता राम चटर्जी इस बीच दंडकारण्य आए और शरणार्थियों को सपने दिखाए कि बंगाल उनका इंतजार कर रहा है.
वाममोर्च की सरकार बनने के बाद दंडकारण्य से शरणार्थी बड़ी संख्या में पश्चिम बंगाल आने लगे. चूंकि सरकार उन्हें बसा नहीं रही थी, इसलिए उन लोगों ने सुंदरबन के एक सुनसान द्वीप मरीचझापी में अपना ठिकाना बनाया. उस दलदली जमीन को खेती लायक बनाया और मछली पालन का काम शुरू किया. वहां उन्होंने स्कूल खोले और एक क्लिनिक भी खोल लिया.
लेकिन वाम मोर्चा सरकार के इरादे नेक नहीं थे. सरकार में भद्रलोक बंगालियों का वर्चस्व था और वे भूल नहीं पाए थे कि इन दलितों ने बंगाल के विभाजन का विरोध किया था. सरकार ने उन्हें हटाने और मरीचझापी खाली कराने का आदेश दे दिया.
मरीचझापी आजाद भारत का सबसे भीषण नरसंहार
इसके बाद तो मानों सरकार मशीनरी भेड़ियों की तरह मरीचझापी पर टूट पड़ी. लगभग 100 पुलिस बोट और बीएसएफ के दो स्टीमर ने 26 जनवरी, 1979 को मरीचझापी द्वीप की घेराबंदी कर दी. लोगों को वहां से आना और जाना रोक दिया. वहां न भोजन पहुंच सकता था और न दवा. मरीचझापी में पीने के पानी के एकमात्र स्रोत में जहर मिला दिया गया. मरीचझापी के चारों तरफ समुद्री पानी था, लेकिन पीने के लिए एक बूंद पानी नहीं था. प्रत्यक्षदर्शियों का अनुमान है कि आर्थिक घेराबंदी के दौरान 1000 से ज्यादा लोग मारे गए. आखिरकार लोगों को मरचीझापी छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा. जिंदा बचे लोगों को उठाकर वापस दंडकारण्य पहुंचा दिया गया. कहा जाता है कि इस दौरान लोगों की लाशों को समुद्र में फेंक दिया गया. सुंदरबन के बाघों ने उन्हें खाया और वे आदमखोर बन गए.
मरीचझापी बंगाल की राजनीति में कभी मुद्दा नहीं रहा. दलितों के साथ व्यवहार को लेकर कांग्रेस और लेफ्ट फ्रंट में कोई मतभेद नहीं था. मीडिया और अकादमिक क्षेत्र में चूंकि भद्रलोक बंगालियों का वर्चस्व है, इसलिए वहां भी इसकी खास चर्चा नहीं हुई. तृणमूल सरकार भी इस मामले में अलग साबित नहीं हुई. पश्चिम बंगाल में दलित आंदोलन कमर 1947 में ही टूट चुकी थी. वहां अब तक कोई मजबूत दलित आंदोलन नहीं खड़ा हो पाया है. जबकि उनकी आबादी लगभग एक चौथाई है.
दरअसल इतने साल भी बंगाली हिंदू शरणार्थियों की नागरिकता का विवाद हल नहीं हुआ है. भारतीय उपमहाद्वीप का ये एकमात्र समुदाय है, जो कहीं का नागरिक नहीं है. हालांकि ऐसे नागरिकता विहीन लोग और भी हैं. लेकिन उनकी संख्या कम है. देश में सरकारें आती जाती रहीं, लेकिन ये मामला कभी हल नहीं किया गया.
बीजेपी का समाधान ये है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से जो भी हिंदू या सिख या बौद्ध शरणार्थी आया है, उसे भारत की नागरिकता दी जाएगी. इसके लिए नागरिकता संशोधन कानून 2019 बन चूका है. शरणार्थियों का धर्म के आधार पर बंटवारा बांग्लादेशी हिंदू दलित शरणार्थियों में नागरिकता पाने की उम्मीद जगी है.
जिन लोगों ने 1947 में अपनी जिंदगी का फैसला सांप्रदायिक आधार पर नहीं किया और मुसलमानों के साथ जीने-मरने का फैसला किया था, आज वे मजबूरी में एक सांप्रदायिक फैसले के पक्ष में खड़े हैं. उन्हें इसके लिए कांग्रेस, वाम मोर्चा और तृणमूल कांग्रेस ने मजबूर किया है, क्योंकि अगर ये पार्टियां चाहतीं, तो उन्हें अब तक नागरिकता मिल चुकी होती. लेकिन उन्होंने तो इनके साथ मरीचझापी कर दिया.
वाम मोर्चा से मुसलमान इसलिए अलग हो गए क्योंकि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में उन्हें सप्रमाण ये पता चला कि वाम मोर्चा ने बंगाल में मुसलमानों के साथ किस तरह का भेदभाव किया. 2006 में जब सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आई तब बंगाल में मुसलमानों की आबादी 25.2 फीसदी थी और राज्य सरकार की नौकरियों में उनका हिस्सा 2.1 फीसदी था. इसके बाद पश्चिम बंगाल के मुसलमानों को ये बताना नहीं पड़ा कि उन्हें वाम मोर्चा से मुक्ति पा लेनी चाहिए. ऐसा होते ही वाममोर्चा शासन का अंत हो गया क्योंकि वाम मोर्चा की जीत में इस वोट का काफी योगदान होता रहा है. हालांकि वामपंथी ये कहते रहे कि हमने मुसलमानों को सुरक्षा दी, दंगा नहीं होने दिया. लेकिन बात बनी नहीं.
अब अगर दलित भी तृणमूल से मुक्ति पा लेते हैं, जिसकी जमीन बन चुकी है, तो ये तृणमूल के लिए बेहद बुरी खबर होगी. मुश्किल ये है कि इतिहास की गलतियों को सुधारने का अब उनके पास शायद कोई मौका नहीं है.
अशोक चौधरी "प्रियदर्शी"
Ashok Kumar Choudhary is a retired banker who has wide experience in handling rural banking, agriculture and rural credit. He is also a Trade Unionist and has held a leadership position in Bharatiya Mazdoor Sangh, trade wing of RSS and formaly he has been the chairman of Regional Advisory Committe, DT National Board of Workers Education. He in past he hold the post of Joint State President of National Human Rights Organization.
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