आचार्य चाणक्य को ही कौटिल्य, विष्णु गुप्त और वात्सायन कहते हैं। उनका जीवन बहुत ही कठिन और रहस्यों से भरा हुआ है। आओ जानते हैं उनके जीवन की संक्षिप्त कहानी।
मगध के सीमावर्ती नगर में एक साधारण ब्राह्मण आचार्य चणक रहते थे। चणक मगथ के राजा से असंतुष्ट थे। चणक किसी भी तरह महामात्य के पद पर पहुंचकर राज्य को विदेशी आक्रांताओं से बचाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने अपने मित्र अमात्य शकटार से मंत्रणा कर धनानंद को उखाड़ फेंकने की योजना बनाई।

लेकिन गुप्तचर के द्वारा महामात्य राक्षस और कात्यायन को इस षड्‍यंत्र का पता लग गया। उसने मगथ सम्राट घनानंद को इस षड्‍यंत्र की जानकारी दी। चणक को बंदी बना लिया गया और राज्यभर में खबर फैल गई कि राजद्रोह के अपराध में एक ब्राह्मण की हत्या की जाएगी। चणक के किशोर पुत्र कौटिल्य को यह बात पता चली तो वह चिंतित और दुखी हो गया। चणक का कटा हुआ सिर राजधानी के चौराहे पर टांग दिया गया। पिता के कटे हुए सिर को देखकर कौटिल्य (चाणक्य) की आंखों से आंसू टपक रहे थे। उस वक्त चाणक्य की आयु 14 वर्ष थी। रात के अंधेरे में उसने बांस पर टंगे अपने पिता के सिर को धीरे-धीरे नीचे उतारा और एक कपड़े में लपेट कर चल दिया।
अकेले पुत्र ने पिता का दाह-संस्कार किया। तब कौटिल्य ने गंगा का जल हाथ में लेकर शपथ ली- ‘हे गंगे, जब तक हत्यारे धनानंद से अपने पिता की हत्या का प्रतिशोध नहीं लूंगा तब तक पकाई हुई कोई वस्तु नहीं खाऊंगा। जब तक महामात्य के रक्त से अपने बाल नहीं रंग लूंगा तब तक यह शिखा खुली ही रखूंगा। मेरे पिता का तर्पण तभी पूर्ण होगा, जब तक कि हत्यारे धनानंद का रक्त पिता की राख पर नहीं चढ़ेगा…। हे यमराज! धनानंद का नाम तुम अपने लेखे से काट दो। उसकी मृत्यु का लेख अब मैं ही लिखूंगा।’
इसके बाद कौटिल्य ने अपने नाम बदलकर विष्णु गुप्त रख लिया। एक विद्वान पंडित राधामोहन ने विष्णु गुप्त को सहारा दिया। राधामोहन ने विष्णु गुप्त की प्रतिभा को पहचाना और उन्हें तक्षशिला विश्व विद्यालय में दाखिला दिलवा दिया। यह विष्णु गुप्त अर्थात चाणक्य के जीवन की एक नई शुरुआत थी। तक्षशिला में चाणक्य ने न केवल छात्र, कुलपति और बड़े बड़े विद्वानों को अपनी ओर आकर्षित किया बल्की उसने पड़ोसी राज्य के राजा पोरस से भी अपना परिचय बढ़ा लिया।
सिकंदर के आक्रमण के समय चाणक्य ने पोरस का साथ दिया। सिकंदर की हार और तक्षशिला पर सिकंदर के प्रवेश के बाद विष्णुगुप्त अपने गृह प्रदेश मगध चले गए और यहां से प्रारंभ हुआ उनका एक नया जीवन। उन्होंने विष्णुगुप्त नाम से शकटार से मुलाकात की। पिता का मित्र शकटार, जो अब बेहद ही वृद्ध हो चला था। चाणक्य ने देखा कि मेरे राज्य की क्या हालत कर दी है घनानंद ने। उधर, विदेशियों का आक्रमण बढ़ता जा रहा है और इधर ये दुष्ट राजा नृत्य, मदिरा और हिंसा में डूबा हुआ है।
एक बार विष्णु गुप्त भरीसभा में पहुंच गए। चाणक्य ने उस दरबार में क्रोधवश ही अपना परिचय तक्षशिला के आचार्य के रूप में दिया और राज्य के प्रति अपनी चिंता व्यक्त की। उन्होंने यूनानी आक्रमण की बात भी बताई और शंका जाहिर की कि यूनानी हमारे राज्य पर भी आक्रमण करने वाला है। इस दौरान उन्होंने राजा धनानंद को खूब खरी-खोटी सुनाई और कहा कि मेरे राज्य को बचा लो महाराज। लेकिन भरी सभा में आचार्य चाणक्य का अपमान हुआ, उपहास उड़ाया गया।

बाद में चाणक्य फिर से शकटार से मिलते हैं और तब शकटार बताते हैं कि राज्य में कई असंतोषी पुरुष और समाज है उनमें से एक है चंद्रगुप्त। चंद्रगुप्त मुरा का पुत्र है। किसी संदेह के कारण धनानंद ने मुरा को जंगल में रहने के लिए विवश कर दिया था। अगले दिन शकटार और चाणक्य ज्योतिष का वेश धरकर उस जंगल में पहुंच गए, जहां मुरा रहती थी और जिस जंगल में अत्यंत ही भोले-भाले लेकिन लड़ाकू प्रवृत्ति के आदिवासी और वनवासी जाति के लोग रहते थे। वहां चाणक्य ने चंद्रगुप्त को राजा का एक खेल खेलते हुए देखा। तब चाणक्य ने चंद्रगुप्त को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया और फिर शुरु हुआ चाणक्य का एक और नया जीवन।

कौटिल्य उर्फ विष्णु गुप्त अथार्त चणक पुत्र चाणक्य ने तब चंद्रगुप्त को शिक्षा और दीक्षा देने के साथ ही भील, आदिवासी और वनवासियों को मिलाकर एक सेना तैयार की और धननंद के साम्राज्य को उखाड़ फेंककर चंद्रगुप्त को मगथ का सम्राट बनाया। बाद में चंद्रगुप्त के साथ ही उसके पुत्र बिंदुसार और पौत्र सम्राट अशोक को भी चाणक्य ने महामंत्री पद पर रहकर मार्गदर्शन दिया।

One thought on “जीवनी: आचार्य चाणक्य {कौटिल्य}”
  1. कौटिल्य उर्फ़ विष्णु गुप्त उर्फ़ चाणक्य चद्र गुप्त के बहुत करिवी थे।उनका विचार बुद्धि के सामने सब नत मस्तक रहते थे।चाणक्य नीति जग जाहिर है।

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