अनुभव आधारित सुखमय गृहस्थ जीवन के सूत्र
संसार में बिना स्त्री के मनुष्य का जीवन नीरस और बिना पुरुष के स्त्री का संसार व्यर्थ है। बिना स्त्री-पुरुष के परस्पर सहयोग के इस संसार का चलना भी असम्भव है, इसे भी कोई अस्वीकार न करेगा। यदि स्त्री तरणी है तो पुरुष पतवार है। यदि स्त्री नदी का जल है तो पुरुष उसका किनारा। यदि स्त्री वाटिका है तो पुरुष उसका माली है। जो सम्बन्ध बिजली और आकाश का है, वर्षा और बादल का है, यही अनिवार्य एवं अभिन्न सम्बन्ध स्त्री और पुरुष का है। परन्तु भारत में ही क्या संसार भर में बहुत कम स्त्री-पुरुष ऐसे होंगे जो अपने जीवन में एक दूसरे से लड़े न हों, जिनका जीवन दूध और पानी की तरह मिल गया हो, जो परछाई की भांति एक दूसरे से सटे रहते हो। देखा यह गया है कि कुछ घरों को छोड़ कर प्रायः सभी घरों में स्त्री-पुरुष आपस में लड़ते हैं, चाहे यह झगड़ा कितना ही सूक्ष्म क्यों न हो। किन्हीं-किन्हीं घरों में तो स्त्री और पुरुष का पारस्परिक कलह इतना भंयकर रूप धारण कर लेता है कि पुरुष स्त्री का मुंह तक देखना पसन्द नहीं करता और स्त्री का मान पुरुष की सूरत से घृणा करा देता है। कहीं-कहीं तो वे परस्पर एक दूसरे की जान तक के दुश्मन हो जाते हैं और उनकी जीवन-वाटिका की कली अधखिली ही मुरझा जाती है। उनका फूल बनने वाला जीवन बिना खिले ही मिट्टी में मिल जाता है।
प्रथम मिलन में प्रत्येक स्त्री, पुरुष अपने सुख स्वप्न का एक नया संसार बनाता है। परन्तु कितने ऐसे जीवन हैं जो अपने स्वप्न जगत् के निर्माण में सफल होते हैं। जो निकटता का भाव उनके जीवन में सर्व प्रथम होता है वह आगे खाई क्यों बन जाता है? एक वृक्ष पर बैठने वाले दो पक्षी सर्वथा एक दूसरे से दूर क्यों उड़ जाते हैं ? इन प्रश्नों का उत्तर हमें अपने जीवन की झांकी में, पड़ोसी के जीवन-निरीक्षण में और मित्रों के जीवन की दुःख और निराशा भरी आह में मिलेगा परन्तु उनकी धुटन का आभास और अनुभव उसकी वास्तविकता को हमसे ओझल किए रहता है। जैसे प्रत्येक व्यक्ति की जीवन-यात्रा सिनेमा का प्लाट होते हुए भी दर्शक उससे उतने आकर्षित नही होते जितने कि एक व्यक्ति की जीवन घटनाओं के समन्वय से जो चित्रपट पर एक साथ प्रदर्शित की जाती है हमें अपने गृहस्थ जीवन के विभिन्न काले पहलुओं को एक स्थान पर लाकर रखना है जिससे उनके द्वारा होने वाले अहितो से हम छुटकारा पा सके और हमारा जीवन सुखी हो और अनावश्यक एवं अस्वाभाविक कलह से हम घुटकारा पा सकें।
प्रायः संसार में स्त्री-पुरुषों को एक दूसरे से कई प्रकार की शिकायते होती है ।
सुखी दाम्पत्य जीवन के लिए स्त्री-पुरुष दोनों का स्वभाव कोमल. सुमधुर एवं शान्त वृत्ति वाला होना चाहिए। परन्तु यदि यह सम्भव न हो और भिन्न-भिन्न स्वभाव के स्त्री-पुरुषों को ही अपनी संसार नैया खेनी पड़े तो परस्पर मिलकर रहने के अचूक मंत्र का पाठ उन्हें कण्ठस्थ करना होगा। यदि अपने उग्र स्वभाव के कारण कलह जीवन का अनिवार्य अंग बन जाये तो फिर उसे मिटाने के लिए भी कभी-कभी विचार करना ही चाहिये।
ये उपाय कलह होने के कुछ समय उपरान्त ही सोचने चाहिये जबकि शरीर कुछ ठंडा पड़ गया हो और मस्तिष्क विभिन्नता के दूषित विष से मुक्त चुका हो, उस समय कोई-न-कोई साधन सूझ ही जायेगा, यदि झगड़ा मिटाने की लगन हो। जबकि दो स्त्री-पुरुष भिन्न-भिन्न स्वभाव के होते है तो उनमें परस्पर कलह
होने लगती है और यह कलह प्रायः उस समय बढ़ जाती है जबकि दोनों उग्र स्वभाव के हों। यदि एक गरम और दूसरा ठंडा हो तब तो कुछ अंशों में बात बनी रहती है। परन्तु इससे प्रथम, दूसरे पर अन्याय ही करता है और कभी-कभी दूसरे की शान्ति की बाद टूटकर भयंकर रूप भी धारण कर लेती है। साथ ही ठंडे स्वभाव वाला चाहे वह स्त्री हो या पुरुष गरम स्वभाव वाले के बर्ताव के कारण दब्बूपन का शिकार बन जाता है, जो उसके जीवन पथ में एक भयंकर अभिशाप सिद्ध होता है ऐसी अवस्था में एक उग्र-स्वभाव वाले को यह समझने का यत्न करना चाहिए कि वह अपने साथी के साथ यदि न्याय नहीं कर सकता, तो अन्याय तो न करे यदि ईश्वर ने उसे इस न्याय और अन्याय की भी विवेचन बुद्धि न दी तो शांत-स्वभाव वाले को परस्पर की कलह से बचने के लिये ही इतना अधिक शांत बन जाना चाहिए कि वह गरम लोहे को काट सके। फिर धैर्य का फल मीठा होता है। यदि दोनों में से एक भी परस्पर मिलकर रहने की भावना से ओत-प्रोत हैं तो उसे चाहिए कि जब उसका साथी जोश में हो तो उसे कुछ समय के लिए चुप ही हो जाना चाहिए और अपने उठते हुए क्रोध को एक गिलास ठंडे पानी से कड़वे घूंट के समान गले के नीचे उतार कर भभकती हुई अग्नि को शान्त करना ही हितकर साधन है।
स्वभाव की उग्रता के कारण वाकदोष हो जाता है और यही वाकदोष व्यंग्य वचनों की जननी है। जो घाव तलवार का होता है उससे कहीं अधिक गहरा और दुःखदायी घाव व्यंग का होता है, जो चिरकाल तक हृदय में अपने विषैले जख्म को बनाये रखता है। स्वभाव की उग्रता से ही मस्तिष्क में चिड़चिड़ापन पैदा होता है। दूषित स्वभाव के फलस्वरूप व्यंग, कटुवचन और चिड़चिड़ापन गृह कलह के हेतु हैं। इन दोषों के कारण थोड़ी-सी असावधानी से ही अनर्थ हो जाता है।
स्त्री-पुरुष के स्वभावों का मिलना सफल जीवन का बड़ा आधार है। जहा दो परस्पर विरोधी स्वभाव हों वहां जीवन-गाड़ी दो दिशाओं में ही चलती है। अतः निम्नलिखित बातों की ओर ध्यान देते हुए स्वभाव मिलाने का यत्न करना चाहिये।
स्त्री-पुरुष के परस्पर स्वभावों की परीक्षा उनके दैनिक कार्य, व्यवहार से भली-भाँति हो जाती है। यदि दोनों की प्रकृति एक जैसी मिल जाय तब ती कोई बात ही नही, यदि ऐसा न हो और स्वभाव में भिन्नता हो तो प्रत्येक को एक दूसरे की दैनिक दिनाचर्या और स्वभाव का अध्ययन करना चाहिए। पति को अपनी स्त्री के वस्त्र , आभूषण, भोजन तथा वार्तालाप आदि विषयों सम्बन्धी स्वभाव का गहन अध्ययन करके तदनुसार व्यवहार करना चाहिए। यदि स्त्री पीला रंग पसन्द करती है और पुरुष को हरा रंग का है तो इसमें पुरुष को स्त्री की रुचि का ही आदर करना पढ़ेगा। इसके लिए दबाव डालना या स्त्री की इच्छा को कुचलना कलह मोल लेना है।
पुरुष की अपनी परख में कुछ वास्तविकता है और वह स्त्री की परख को अज्ञान के आधार पर अनुचित समझता है तो अपनी कुशलता के द्वारा प्रेम पूर्वक वह स्त्री को उसकी परख में दोष सुझा सकता है और यदि स्त्री की परख अज्ञान पर अवलम्बित नहीं तो निश्चय ही बदल कर पुरुष के अनुरूप हो जाएगी।
स्वभाव मिलाने के लिए यह सबसे बड़ी बात है कि स्त्री-पुरुष में से प्रत्येक अपनी-अपनी भूल सुधारने के लिए सर्वदा उद्यत रहे यदि अपने में कोई कमी या दोष दिखाई दे या सुझाया जाये तो उसे बलपूर्वक मिटाने का यत्न करना चाहिए जैसे स्त्री-पुरुष में से एक स्वच्छ कपड़े पहनने का आदी है और दूसरे को मैले कपड़ों से कोई घृणा नहीं होती तो वह स्त्री हो या पुरुष उसे अपनी इस बुरी आदत को बदलकर एक दूसरे को इस शिकायत का अवसर नहीं देना चाहिए, और यदि ऐसा अवसर आ ही बने तो इस बुरी बात के लिए आलस्य या प्रमाद वश टालमटोल करना गृहस्थी को सुखी बनाने के लिए ठीक नहीं। इससे परस्पर घृणा के भाव पैदा होते हैं और पारस्परिक स्वभाव न मिलकर खाई और भी चौड़ी होती है मैल तो चाहे मन में हो या शरीर पर अथवा कपड़ों पर, सर्वदा ही त्याज्य और घृणास्पद है।
स्त्री और पुरुष दोनों के लिए जहां कपड़े की वजह और रंग का चुनाव अपने स्वाभावानुकूल हो वहां उनके पहनने का सलीका भी आना चाहिए। कपड़ों के पहनने में लापरवाही दिखाना पारस्परिक आकर्षण के लिए बाधक है उदाहरणार्थ पुरुष की कमीज का एक ओर का कॉलर कोट के नीचे और दूसरा कोट के कॉलर पर, चोटी-टोपी के बाहर हवा खाने लगे तो वह स्त्री के लिए बुद्धू समझा जाता है। इसी प्रकार स्त्री की साड़ी का एक कोना इतना ऊंचा हो जाए कि पेटीकोट बाहर निकला रह जाये तो कीमती से कीमती साड़ी को भी वह स्त्री लजा देती है। यदि चादर जमीन पर घिसटती चले या पैरों में चप्पल या स्लीपर सड़क को घिसते चलें तो उस स्त्री को फूहड़ की पदवी जल्दी ही मिल जाती है। यदि इस प्रकार का फूहड़पन कहीं सभ्य मण्डली में प्रदर्शित हो जाये तो समाज में तो लज्जित होना ही पड़ता है साथ ही आपस में कलह का कारण भी हो जाता है। यदि भूल से ऐसा कभी अवसर आ भी जाये तो अपनी भूल स्वीकार कर इस संभावित कलह को बढ़ने से पूर्व ही टाल देना चाहिए।
प्रायः स्त्रियों को आभूषण बहुत प्रिय होते है। यह बात दूसरी है कि कोई कम जेवर पहनना पसन्द करती है तो दूसरी अधिक। एक को भारी जेवर भाते है तो दूसरी को हल्के और नई चलन के रुचते है अत: अपनी सामर्थ्यनुसार आभूषण का चुनाव भी स्त्री की इच्छा पर ही छोड़ देना चाहिए और यह भी समझ लेना आवश्यक है कि स्त्री के इन आभूषणो पर पुरुष का कोई अधिकार नहीं है। प्रायः धनाभाव के कारण पुरुष जब स्त्रियों के जेवर गिरवी रख देते है या बेच देते हैं तो परिणाम स्वरुप घर युद्ध का अखाडा बन जाता है। ऐसी अवस्था में पुरुष को केवल स्त्री की स्वीकृति से ही उन आभूषणों को लेना चाहिए।
कपड़े के रंग और आभूषणों की परख की योग्यता और उनके व्यवहार की जानकारी के साथ-साथ प्रत्येक स्त्री-पुरुष को उन्हें सम्भालकर बरतने और करीने से रखने की शिक्षा भी प्राप्त करनी चाहिए। इसमें स्त्री का उत्तरदायित्व अधिक है।
जब भी स्त्री-पुरुष में झडप प्रारम्भ होगा तो छोटी-छोटी बातों पर होगा । अत इन बातो का दाम्पत्य जीवन में बड़ा महत्व है, और स्त्री-पुरुष के स्वभाव मिलने में इस प्रकार की शिक्षा सहायक होती है ।
जहा वस्त्र और आभूषण के विषय में स्त्री-पुरुष को परस्पर एक दूसरे की इच्छाओं का मान करना चाहिए, वहां भोजन के सम्बन्ध में भी स्त्री -पुरुष को एक दूसरे के स्वभाव का अध्ययन करना चाहिए। भोजन आदि की सामग्री का जुटाना और उनकी उचित व्यवस्था करना स्त्री के कर्तव्य में सम्मिलित है अतः इस विषय में पुरुष की अपेक्षा स्त्री ही अधिक उत्तरदायी है। पुरुष का कर्तव्य तो केवल तत्संभंधी सामग्री को क्रय कर लाने से ही पूरा हो जाता है। यह काम स्त्री का है कि वह अपने पति के भोजन सम्बन्धी अभिरुचि का पता लगाए। वह देखे कि उसके पति को भोजन ठंढा पसन्द है या गरम। मसाला अधिक मात्रा में है या कम। वह किन किन चीजों को अधिक रुचि से खाता है। कौन-कौन-सी चीजें उसे पसन्द नही। उसकी रुचि के अनुरूप ही भोजन तैयार करें। समय-समय पर भोजन में विविधता और परिवर्तन करती रहें. क्योंकि सदैव एक ही प्रकार का भोजन न तो स्वास्थ्य के लिए लाभकारक होता है और न ही रुचिकर। साथ ही ऐसा प्रयत्न करना चाहिए कि एक वस्तु से भी कई प्रकार की चीजें बनाई जायें। जैसे केवल आलू से पापड आदि बनाये जा सकते हैं, जिन्हें किसी भी समय काम में लाया जा सकता है। यदि घर मे केवल एक साग है तो उसे भी दो तरह से तैयार किया जा सकता है सूखा, रसेदार या पतल साग में कौन-सा पतिदेव को पसंद है इसका भी विचार स्त्री को करना आवश्यक है.
बहुत से पुरुषों की यह आदत होती है कि वे कार्य की अधिकता से समझिये या अन्य कारण वश किसी विशेष अवस्था को छोड़कर खाने की चीजें मागते नहीं। ऐस अवस्था में स्त्री को चाहिए कि वह अपने यहां विद्यमान खाद्य पदार्थों में से भोजन प्रारम्भ कराने से पूर्व ही संग्रह कर ले और जब तक सब चीजें जिन्हे वह खिलाना चाहती है, थाली में परस न ली जाएं पुरुष को भोजन के लिए न बैठाले।
कुछ स्त्रियों में एक बड़ा बुरा स्वभाव होता है कि पति के भोजन के समय अपनी आवश्यकताओं का रजिस्टर खोलकर बैठ जाती है। इस प्रकार भोजन से मन हटकर चिन्ताओं में फंस जाता है। चाहिए तो यह कि अपनी आवश्यकताएं ऐसे अवसर पर रक्खी जाएं जबकि मनुष्य के आराम का समय हो, और वह प्रसन्न मुद्रा में हो तथा किसी आवश्यक कार्य में न लगा हो। फिर भी आवश्यक वस्तुओं की या तो एक सूची तैयार करके पहिले से ही रखी जाये अथवा उनकी संख्या इतनी कम हो, जो सहज में ही स्मरण रह सके। यदि कोई वस्तु आने से रह जाए तो उसके लिए सख्त तकाजा न करके ढग से स्मरण कराया जाये। जो वस्तु घर में लायी जाये उनके किन्हीं विशेष अवस्थाओं को छोड़कर दोष निकालने के स्थान पर उनके लिए धन्यवाद देना उचित है। यदि कोई वस्तु इच्छानुसार नहीं आई तो उसके लिए पुनः स्मरण कराया ज सकता है। परन्तु स्मरण कराने का ढंग ऐसा हो कि मनुष्य के हृदय में कोई ऐसा भाव पैदा न होने पावे कि उसकी लाई हुई वस्तु की अवहेलना हो रही है जैसे देखिए आप हरे रंग की साडी लाए इसके लिए धन्यवाद आपकी परख अच्छी है। वास्तव मे इस मौसम के लिये ऐसे रंग की ही आवश्यकता थी परन्तु अब शीघ्र ही ऐसा मौसम आ रहा है जिसमें प्याजी साड़ी अच्छी लगेगी । अब की बार प्याजी रंग की साड़ी भी लाने की कृपा करें। ठीक है ना।
परन्तु बुद्धिहीन स्त्रिया ऐसा नहीं करती। जहां उनके मन भाई वस्तु न आई आग बबूला हो गई. रूठ गई. उदासीनता दिखाने लगी और यदि अधिक उदंड हुई तो वह यह कहने में भी नहीं सकुचाती-ईश्वर ने तुम्हे काहे को आदमी बनाया तुम्हें यह भी नहीं सूझता कि कब किस मौसम में कौन-सा रग फवता है रख लो अपनी सौगात हमें नहीं चाहिए। इससे जहां लाने वाले का दिल टूटता है घर में कलह भी उत्पन्न होती है। अतः स्त्रियों को इस ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है जब कभी स्त्रिया बाजार हाट जाती है तो वे कुछ-न-कुछ खरीद कर लाती हैं।
उनमें से बहुत-सी वस्तुएं ऐसी भी हो सकती है जो पुरुष की दृष्टि में व्यर्थ हों और उसमें व्यर्थ ही पैसा बरबाद किया गया हो तो भी प्रत्येक पुरुष का यह कर्तव्य है कि वह ऐसा भाव प्रदर्शित न करे जिससे स्त्री के हृदय में चोट लगे और उसे यह अनुभव हो कि उसकी बुद्धि की उपेक्षा की जा रही है हां यदि कोई भूल हो तो खरीदी हुई वस्तु के लाभ-हानि बतलाकर अपनी सम्मति की वस्तु की विशेषता बताते हुए स्त्री की भूल बता देनी चाहिए। उसमें भी बात इस ढंग से हो कि स्त्री को इस बात का ज्ञान न होने पाये कि यह सब उसकी भूल बताने के लिये ही किया जा रहा है। उदाहरणार्थ एक स्त्री सस्ते दामों में कामदार सुनहरी नाक फूल खरीदकर लाती है। पुरुष की सम्मति में नाक फूल सोने का होना चाहिए था और नग की जडाई ऐसी होनी चाहिए थी जो उसमें से निकलने न पावे तो पुरुष को अपनी सम्मति इस प्रकार रखनी चाहिए नाक फूल की डिजाइन तो बड़ी सुन्दर है और मूल्य भी बहुत कम है। परन्तु प्रायः ऐसा देखा गया है कि साबुन लगने से सोने का मुलम्मा उतर जाता है। फिर इसकी पीतल काली पड़ जाती है। मैंने एक नाकफूल ऐसा देखा था जो सोने का था, था तो इससे भारी परन्तु उसके नग की जड़ाई सच्ची थी मूल्य भी उचित था परन्तु उस फूल को खरीदने में यह लाभ है कि टूटने के बाद भी सोना बचा रहता है परन्तु सुनहरी फूल का नग 2-4 दिन में ही निकल जाता है और सुनहरा पानी छूटने पर इसका मूल्य कुछ भी नहीं रह जाता। ऐसी अवस्था में दुःख होता है कहावत भी है-सस्ता रोवे बार-बार महगा रोवे एक बार।
यदि इसी बात को कोई उग्र स्वभाव का पुरुष कहता तो यहा तक कह देता तुम्हे तो घर नहीं दिखाई देता। पैसा कमाओ तो मालूम हो यह दो दिन में टूट जायेगा। व्यर्थ में व्यय कर दिया। यदि फूल का ऐसा ही शौक लगा था तो मुझसे ही कहा होता। जब खरीदने की तमीज ही नही तो बाजार जाती ही क्यो हो ?
बहुत बढ़िया सीमा दीदी, आपकी इस रचना को पढ़ने से बहुतों का घर उजड़ने से बच जायेगा. भविष्य में भी हमारा मार्गदर्शन इसी प्रकार करती रहें, हम आपके आभारी रहेंगे.
सीमा दीदी को प्रणाम, अतिसुन्दर लेख सुखद दाम्पत्य जीवन के लिए बहुत उपयोगी संदेश. हर उम्र के दम्पत्ति के लिए पठनीय समृद्धि आनंद, भोपाल
बहुत ही सुन्दर व व्यवहारिक अनुभव । शालीन प्रस्तुति ।
बहुत सुन्दर, आकर्षक रचना लीक से अलग लेखिका को बहुत बहुत धन्यवाद.