17 अगस्त माउंटेन मैन दशरथ मांझी की पुण्यतिथि, जानिये कैसे प्यार के लिये अकेले चीर डाला पहाड़ का सीना
आज माउंटेन मैन दशरथ मांझी की पुण्यतिथि, जानिये कैसे प्यार के लिये अकेले चीर डाला पहाड़ का सीना
प्यार तो सब करते हैं लेकिन कोई-कोई ही ऐसा होता है जिनका प्यार इतिहास बन जाता है। ऐसा ही प्यार था एक मजदूर का अपनी पत्नी के लिए जिसने एक छेनी-हथौड़े की मदद से पहाड़ को काटकर उसके बीच रास्ता बना दिया।
आज उसी माउंटेन मैन यानि दशरथ मांझी की पुण्यतिथि है। गेहलौर की घाटियों में आज भी दशरथ मांझी के छेनी-हथौड़े की ठक-ठक की आवाज का एहसास होता है।
ये प्यार की अनोखी दास्तां है, एक मामूली से मजदूर दशरथ मांझी की, जिसने अपने हाथों से उस पहाड़ का सीना चीर कर रख दिया जो उसकी मोहब्बत की राह में आ खड़ा हुआ था और जिसकी वजह से उनकी प्रियतमा की मौत हो गई थी। उसी दिन उन्होंने संकल्प लिया कि इस कठोर पहाड़ को काटकर इसके बीच आने-जाने का रास्ता बना देंगे कि फिर भविष्य में किसी प्यार करने वाले को एक-दूसरे से बिछड़ना ना पड़े।
बिहार के गया जिले में 1934 में जन्मे दशरथ मांझी की शादी बचपन में ही हो गई थी लेकिन दशरथ मांझी की मोहब्बत तब परवान चढ़ी जब वो 22 साल की उम्र में यानी 1956 में धनबाद की कोयला खान में काम करने के बाद अपने गांव वापस लौटे और गांव की एक लड़की से उन्हें मोहब्बत हो गई। लेकिन किस्मत देखिए ये वही लड़की थी जिससे दशरथ मांझी की शादी हुई थी। दशरथ मांझी ने ये पहाड़ तोड़ने का फैसला अपनी उसी मोहब्बत यानी फाल्गुनी के लिए किया था।
गेहलौर के लोगों को जरूरी सामान लेने के लिए वजीरपुर जाना पड़ता था जो गेहलौर घाटी को पार कर जाना पड़ता था इसके लिए लोगों को 80 किलोमीटर का लंबा रास्ता तय करना पड़ता था। फाल्गुनी भी किसी काम से गेहलौर घाटी का दुर्गम रास्ता पारकर वजीरपुर जा रही थीं कि अचानक उनका पैर फिसल गया और वे गिर गईं।
दशरथ की आंखों के सामने गहलौर और अस्पताल के बीच खड़े जिद्दी पहाड़ की वजह से साल 1959 में उनकी बीवी फाल्गुनी देवी को वक्त पर इलाज नहीं मिल सका और वो चल बसीं। अपनी प्रिया, अपनी पत्नी को आंखों के सामने मरता देख दशरथ ने तय किया कि अब इस पहाड़ पर रास्ता बनाकर रहेंगे।
पत्नी के चले जाने के गम से टूटे दशरथ मांझी ने अपनी सारी ताकत बटोरी और पहाड़ के सीने पर वार करने का फैसला किया। लेकिन यह काम इतना आसान नहीं था। शुरुआत में उन्हें पागल तक कहा गया। दशरथ मांझी ने बताया था, ‘गांववालों ने शुरू में कहा कि मैं पागल हो गया हूं, लेकिन उनके तानों ने मेरा हौसला और बढ़ा दिया’।
साल 1960 से 1982 के बीच दिन-रात दशरथ मांझी के दिलो-दिमाग में एक ही चीज़ ने कब्ज़ा कर रखा था। दशरथ मांझी ने बताया था कि वो हर रोज सुबह चार बजे उठते थे और 8 बजे तक पहाड़ तोड़ते थे। खेतों में मजदूरी करने के सिवा उनकी जिंदगी का सारा वक्त पहाड़ तोड़ने में ही बीतता था।
पहाड़ से अपनी पत्नी की मौत का बदला लेना और 22 साल जारी रहे जुनून ने अपना नतीजा दिखाया और पहाड़ ने मांझी से हार मानकर 360 फुट लंबा, 25 फुट गहरा और 30 फुट चौड़ा रास्ता दे दिया और 80 किलोमीटर के जीरपुर और गहलौर के बीच की दूरी को महज 2 किलोमीटर में समेट दिया।
इससे पहले वजीरपुर और गहलौर के बीच की घाटी का रास्ता जिसे लोगों को तय करके वजीरपुर तक पहुंचना पड़ता था। दशरथ मांझी के हथौड़े ने पहाड़ को दो हिस्सों में बांट दिया। पच्चीस फुट ऊंचा पहाड़ दशरथ मांझी के हौसले के आगे हार गया। मांझी ने 30 फुट चौड़ी और 365 फुट लंबी सड़क पर अपनी विजय गाथा लिख दी।
लेकिन दशरथ मांझी ने जिस पत्नी के लिए पहाड़ तोड़ने का करिश्मा किया था वो उसे देखने के लिए जीवित नहीं थी। प्यार की अमर निशानी इतिहास के पन्नोें में दर्ज हो गयी थी और आज भी लोग उस अमर प्रेम कथा का जिक्र करते हैं। आज भी गेहलौर की पहाड़ियों से गुजरते हुए दशरथ मांझी और फाल्गुनी के प्रेम की पराकाष्ठा की अनुभूति होती है।
साल 2007 में आज के ही दिन यानि 17 अगस्त को गॉल ब्लॉडर के कैंसर से जूझते हुए दशरथ मांझी ने भी 73 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कह दिया लेकिन उनकी कहानी पत्थर पर लिखा इतिहास है जिसे बार बार दोहराया जाता रहेगा।