सनातन धर्म को भारतीय संस्कृति के तौर पर परिभाषित करने वाले व्यक्ति थे पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी.

जिन्होंने ना केवल भारतीय राजनीति में बल्कि साहित्य के क्षेत्र में भी सक्रिय भूमिका निभाई। इतना ही नहीं पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने ही देश में मौजूद समस्त प्रकार की संस्कृतियों के एकीकरण को ही भारत की मजबूती का आधार बताया। जिसके लिए इन्होंने एकात्म मानववाद की विचारधारा को बढ़ावा दिया। तो चलिए आज जानते है पंडित दीनदयाल उपाध्याय के जीवन के बारे में।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितंबर 1916 को उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले के नगला चन्द्रभान नामक गांव में हुआ था। इनके पिता का नाम भगवती प्रसाद उपाध्याय और माता का नाम रामदुलारी था। इनके पिता रेलवे में नौकरी करते थे, जिस कारण उनका अक्सर बाहर आना जाना लगा रहता था।

ऐसे में इनके पिता ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय और उनके छोटे भाई शिवदयाल को इनकी ननिहाल भेज दिया था। जहां रहकर ही इनकी माता रामदुलारी ने बच्चों की परवरिश की। लेकिन उस समय पंडित दीनदयाल उपाध्याय की आयु मात्र 3 वर्ष की रही होगी, जब इनके पिता का देहांत हो गया। इतना ही नहीं पिता की मृत्यु के बाद इनकी माता इस सदमे को बर्दाश्त ना कर सकी।

ऐसे में कुछ समय बाद क्षय रोग से पीड़ित होने के कारण इनकी मां भी चल बसी। जिसके कारण पंडित दीनदयाल का बचपन काफी कष्टों से भरा रहा। हालांकि पंडित दीनदयाल पढ़ाई में प्रारंभ से ही मेधावी रहे। जिस वजह से इन्होंने हाईस्कूल और इंटरमीडिएट की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की।

जिसके लिए इन्हें गोल्ड मेडल से भी नवाजा गया। और स्नातक के बाद स्नातकोत्तर की डिग्री भी प्रथम श्रेणी में प्राप्त की। कहते है कि अंग्रेजी शासन में इन्होंने प्रशासनिक सेवा से जुड़ी परीक्षा भी दी थी, लेकिन पास होने के बावजूद इन्होंने अंग्रेजी शासन के लिए नौकरी नहीं की। तो वहीं माना जाता है कि इनकी एक बहन रामादेवी थी। जिनकी मृत्यु ने इन्हें पूरी तरीके से तोड़ कर रख दिया था।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ाव
पंडित दीनदयाल उपाध्याय जब कानपुर से स्नातक कर रहे थे, उसी दौरान वह अपने एक साथी मित्र बालूजी महाशब्दे के आग्रह पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संपर्क में आए। और अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने स्वयंसेवक संघ के दूसरे वर्ष का सम्पूर्ण प्रशिक्षण प्राप्त किया।

उस वक़्त संघ के संस्थापक डॉ हेडगेवार कानपुर में ही थे, ऐसे में पंडित दीनदयाल उपाध्याय को उनका काफी सहयोग मिला। इसके बाद पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने संघ को ही अपने जीवन का उद्देश्य मान लिया और आजीवन संघ का प्रचारक बनकर सेवा प्रदान की। साथ ही साल 1942 में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए कार्य करना शुरू कर दिया।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय और राजनीति में इनका प्रवेश
माना जाता है कि जब पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी स्वयंसेवक संघ में आए थे, उसी दौरान इनके राजनीतिक सफर की शुरुआत हुई थी। क्यूंकि साल 1951 में डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ की स्थापना की थी। जिसमें पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी को महामंत्री चुना गया।

बता दें कि भारतीय जनसंघ का पहला अधिवेशन कानपुर में सन् 1952 को हुआ था। जिनमें पारित किए गए प्रस्तावों में कुल 7 प्रस्ताव इस दल के महामंत्री बने पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने प्रस्तुत किए थे।

इतना ही नहीं साल 1967 में कालीकट में हुए अधिवेशन में उन्हें अध्यक्ष घोषित किया गया। ऐसे में इनकी राजनीतिक प्रतिभा से प्रभावित होकर डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा था कि-

यदि मुझे दो दीनदयाल मिल जाए तो मैं भारतीय राजनीति का नक्शा ही बदल दूं।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय और साहित्य में उनका योगदान
राजनीति और संघ के प्रचारक के अलावा पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने साहित्य के क्षेत्र में काफी योगदान दिया। उनकी हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों ही भाषाओं में अच्छी पकड़ थी। जिसके चलते उन्होंने अपने लेख में दोनों ही भाषा का बखूबी प्रयोग किया था।

साथ ही वह एक राष्ट्रवादी चिन्तक थे, जोकि भारतीय संस्कृति के मिलन को ही देश की संप्रभुता का प्रतीक मानते थे। वह वसुधैव कुटुंबकम् को ही भारतीयों के जीवन जीने की शैली कहा करते थे। साथ ही उनके लेख और कृतियां इस ओर इशारा करती थी कि वह भारतीय राजनीति को हिंदुत्व धारा की ओर मोड़ना चाहते थे। ऐसे में उनके द्वारा रचित कई साहित्य उपलब्ध है।

जिनमें सम्राट चन्द्रगुप्त काफी प्रचलित हैं। इसके अलावा दो योजनाएं, राजनीतिक डायरी, भारतीय अर्थनीति का अवमूल्यन, जगतगुरू शंकराचार्य, राष्ट्र जीवन की दिशा और एक प्रेम कथा आदि शामिल है। साथ ही उन्होंने जन चेतना के लिए राष्ट्रधर्म और स्वदेश नाम से पत्रिकाओं का विमोचन किया था। उनके एक राजनैतिक जीवनदर्शन का उल्लेख मिलता है, जिसमें उन्होंने कहा था कि-

भारत में रहने वाले और उसके प्रति ममता का भाव रखने वाले जन हैं। उनकी जीवन शैली, कला, साहित्य और दर्शन आदि भारतीय संस्कृति है। ऐसे में भारतीय संस्कृति का आधार राष्ट्रवादी है। और इसी भाव में यदि भारतीय निहित रहे तभी देश एकात्म मानववाद की विचारधारा को बढ़ावा दे पाएंगे।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी की मृत्यु:
साल 1968 में कालीकट अधिवेशन के दौरान 11 फ़रवरी की रात्रि को रहस्यमय तरीके से मुगलसराय स्टेशन पर पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी की हत्या कर दी गई। हालांकि आज तक उनकी मौत के रहस्य से पर्दा नहीं उठ पाया है। और साथ ही कहा जाता है कि मृत्यु के पश्चात उनके हाथ में मिले पांच के नोट के बारे में किसी को कोई सूचना नहीं है।

तो वहीं जब मुगलसराय स्टेशन के पास उनकी लाश पाई गई तो उस वक़्त लोगों ने उन्हें पहचान लिया था। और जब उनकी मौत की पुष्टि करते हुए डॉक्टर ने कहा कि अब पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी हमारे बीच नहीं रहे। तो पूरे देश में इस दिन शोक मनाया गया।

और तो और भारतीय राजनीति में इस दिन को याद करके आज भी लोग निशब्द हो जाया करते हैं। ऐसे में पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी को श्रृद्धांजलि अर्पित करते हुए वर्तमान सरकार ने मुगलसराय स्टेशन को दीनदयाल उपाध्याय स्टेशन कर दिया है।

इसके अलावा कान्दला बंदरगाह का नाम भी बदलकर दीनदयाल उपाध्याय बंदरगाह कर दिया गया इतना ही नहीं केंद्र सरकार ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर कई कल्याणकारी योजनाओं का क्रियान्वयन किया है।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के विचार:
हमारी राष्ट्रयिता का आधार केवल भारत नहीं अपितु भारत माता है, क्यूंकि यदि माता शब्द हटा दिया जाए, तो केवल एक जमीन का टुकड़ा मात्र शेष रह जाएगा।

नैतिकता के सिद्धांतो की खोज की जाती है, ना केवल एक व्यक्ति द्वारा इसका निर्माण हो सकता है।

जब मनुष्य अपने स्वभाव को धर्म के सिद्धांतो के अनुसार बदलता है, तब जाकर हमें संस्कृति और सभ्यता की प्राप्ति होती है।

 

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