ज्योतिष शास्त्र: अष्टम अध्याय

अशोक कुमार चौधरी “ज्योतिर्विद”

संपर्क सूत्र 9431229143

चंद्रगति ज्योतिष सिद्धांत और तिथियों के स्वामी

पृथ्वी के सबसे निकट चन्द्रमा है, इसका जल तत्व पर विशेष प्रभाव पड़ता है। प्रत्येक पूर्णमासी को समुद्र में ज्वार आना, इसका स्पष्ट प्रमाण है। जल, चल (मोबाइल) तत्व है, यह स्थिर नहीं रहता, इसी प्रकार मन के जल-तत्व होने के फलस्वरूप चन्द्रमा का मन पर भी विशेष प्रभाव पड़ता है। चन्द्रमा द्रतुगामी होने से मन भी द्रुतगामी है।
जातक की जन्मकुण्डली में चन्द्रमा का एक विशिष्ट स्थान होता है। चन्द्रमा जिस राशि पर होता है, वही जातक की जन्मराशि कहलाती है। जन्मराशि से ही मनुष्य के मन का स्वभाव और वृत्ति का पता चलता है। सूर्य प्रकाश स्वामी है, अतएव उसका प्रभाव नेत्रों पर विशेष होता है। मनुष्य के अंत:करण का ज्ञान सूर्य से हो सकता है। इस प्रकार विभिन्न ग्रहों के अध्ययन से फलित ज्योतिष में जातक के शुभाशुभ का निर्णय होता है।
आकाश में जितने भी ग्रह हैं, वे बस निर्दिष्ट गति से अपने पथ पर चलते रहते हैं और जब-जब जिन-जिन ग्रहों का विशेष प्रभाव पृथ्वी पर पड़ता है, उसी गति से उनका फल भी होता है। एक प्रकार से किसी व्यक्ति की कुंडली आकाशीय नक्षत्र ग्रह-समूहों का मानचित्र हैं। क्रांतिवृत्त पृथ्वी के सूर्य परिक्रमण मार्ग का नाक्षत्रिक वृत्त है, जिस मार्ग से सभी ग्रह सूर्य के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते रहते हैं। जिस मार्ग से पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है, उसी मार्ग के आस-पास ही नक्षत्र गोल में समस्त ग्रहों का भी मार्ग है, जो क्रांतिवृत्त से अधिक से अधिक 7 अंश का कोण बनाते हुए चक्कर लगाते हैं। बुध का मार्ग क्रांतिवृत्त 7 डिग्री सैल्सियस कोणात्मक, शुक्र का 3 डिग्री सैल्सियस, 23 डिग्री सैल्सियस व 35 डिग्री सैल्सियस, भौम का 1 डिग्री सैल्सियस, 51 डिग्री सैल्सियस व 02 डिग्री सैल्सियस, बृहस्पति का 6 डिग्री सैल्सियस, 41 डिग्री सैल्सियस व 18 डिग्री सैल्सियस, शनि का 2 डिग्री
सैल्सियस, 29 डिग्री सैल्सियस व 40 डिग्री सैल्सियस, यूरे नस का शून्य डिग्री सैल्सियस, 46 डिग्री सैल्सियस व 20 डिग्री सैल्सियस, नेपच्यून का 01 डिग्री सैल्सियस, 40 डिग्री सैल्सियस व 02 डिग्री सैल्सियस क्रांतिवृत्त पर झुका हुआ है। चन्द्रमा का पृथ्वी परिक्रमा मार्ग क्रांतिवृत्त से
इस प्रकार स्पष्ट है कि सभी ग्रह क्रांतिवृत्त से 7.8 डिग्री सैल्सियस उत्तर या दक्षिण होकर चलते हैं। इस विशिष्ट मार्ग का आकाशीय विस्तार राशि है, जिसके 12 भाग हैं और प्रत्येक भाग 30 डिग्री सैल्सियस का होता है। इन 12 राशियों में प्रत्येक का आकार पृथ्वी पर रहने वाले जीव-जन्तुओं के आकार पर होने के कारण ही उनका वैसा नाम पड़ा। इस प्रकार से मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ, मीन ये 12 राशियां बनीं। चूंकि मनुष्य के भाग्य का सम्बंध ग्रहों की गति पर ही अवलम्बित है और ग्रहों की गति क्रांतिवृत्त के आसपास के नक्षत्र-मंडल में ही होती है, इसलिए ज्योतिषियों ने नक्षत्र-मंडल के 27 भागों के 27 नक्षत्र मानकर उनका नामकरण स्पष्ट किया। चूंकि चन्द्रमा एक दिन में इस मंडल में 13 डिग्री सैल्सियस से 20 डिग्री सैल्सियस चलता है इस लिए उसकी गति का 27 भागों में विभाजन किया गया है।
पृथ्वी भी इन्हीं नक्षत्र में 365.14.31.30 गति पर सूर्य की परिक्रमा करती है, जिससे एक सौर वर्ष बनता है।
365.06.09.97.
इसके साथ ही पृथ्वी अपनी धुरी पर भी 23 डिग्री सैल्सियस, 26 डिग्री सैल्सियस व 42 डिग्री सैल्सियस झुकी हुई है, जिससे उसकी गति के मध्य मे उसका विषुव वृत्त 2 स्थानों पर क्रांतिवृृत्त को काटता है जिससे अयन बनता है। इसी के फलस्वरुप सूर्य एक वर्ष में 6 महीने दक्षिण अयन पर तथा 6 महीने उत्तर अयन पर रहता है। इस क्रांतिवृत्ताश्रित मार्ग के नक्षत्र मंडल के 30 डिग्री सैल्सियस के एक भाग को राशि कहते हैं, जिसका पूरा वृत्त 360 डिग्री सैल्सियस का होता है। जातक की जन्म-कुंडली का यही आधार होता है।
कुंडली का निर्माण करते समय जातक के जन्मकाल के समय पूर्व क्षितिज्ञ पर क्रांतिवृत्त का जो भाग होता है, उसे लग्न स्पष्ट कहते हैं, और उस राशि को लग्नराशि कहा जाता है। तत्पश्चात जो ग्रह आकाशीय पथ पर जहां होता है, जातक की कुंडली में भी वह ग्रह उसी स्थान पर बैठा दिया जाता है। इस प्रकार आकाशीय ग्रहों की सही स्थिति उसकी कुंडली में स्पष्ट हो जाती है।
ज्योतिष शास्त्र को ज्योति: शास्त्र भी कहा गया है, क्योंकि इस शास्त्र से जीवन-मरण का रहस्य, सुख-दु:ख, हानि-लाभ आदि के बारे में पूर्ण प्रकाश मिलता है। मानव-जीवन पर हर समय ग्रहों का प्रभाव पड़ता रहता है। उत्पत्ति के समय बालक पर जिस ग्रह की जैसी राशियों की छाया पड़ेगी, बालक का स्वभाव, चरित्रादि वैसा ही होगा।
इस प्रकार ज्योतिष शास्त्र पर दृष्टि डालने से पता चलता है कि प्राचीन काल में हमारी सभ्यता एवं संस्कृति कितनी बढ़ी-चढ़ी थी। प्राचीन ऋषियों ने अपने दिव्य चक्षुओं से ग्रह-पक्ष का अवलोकन कर मानव-जाति पर उसका प्रभाव स्पष्ट करते हुए शुभाशुभ का निर्णय करते हुए, उत्तम कोटि की प्रतिभा का परिचय दिया था। अर्वाचीन ज्योतिष में जो शिथिलता दिखाई पड़ रही है उसका कारण दिव्य ज्ञान वाले ऋषियों की कमी है। बड़ी-बड़ी वेधशालाओं एवं साधनों के अभाव के फलस्वरूप ही इस पर से आस्था हटने लगी है। यदि सूक्ष निरीक्षण से इस शास्त्र का अध्ययन करें तो यह न केवल विज्ञान के लिए सहायक है, अपितु मनुष्य भी इसके द्वारा अपना भविष्य जान कर उसे संवारता हुआ उन्नति पथ पर अग्रसर हो सकता है।

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2*ज्योतिष सिद्धांत*
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भारतीय ज्योतिष का उद्देश्य मानव के आत्मकल्याण और शुभाशुभ का निर्णय करते हुए भविष्य का संकते कर देना है। लोक व्यवहार में क्रियात्मक रूप में इसके 2 सिद्धांत हैं, 1 गणित और फलित।
गणित ज्योतिष के 3 भेद हैं, कारण, तंत्र और सिद्धांत तथा फलित ज्योतिष के जातक, ताजिक, मुहुर्त, प्रश्र और शकुन ये 5 भेद माने गए हैं। यों इनमें और भी अन्य भेदोपभेद किए जा सकते हैं, परंतु मुख्यत: उपर्युक्त भेद ही माने जाते हैं।
इस पुस्तक में मुख्यत: फलित ज्योतिष के अंगों पर ही प्रकाश डाला गया है। यद्यपि ज्योतिष की जानकारी के लिए गणित ज्योतिष का अध्ययन भी आवश्यक है, पर उसका विवेचन दूसरी पुस्तक कुंडली-दर्पण में किया गया है। प्रामाणिक ज्योतिषियों द्वारा निर्मित तिथि-पत्रों से गणित के सिद्धांतों का शुभाशुभ ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है, किंतु हर व्यक्ति के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह ज्योतिषी हो, परंतु अपने जीवन को व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए ज्योतिष का साधारण ज्ञान आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है। फलित ज्योतिष की जानकारी के लिए कुछ मोटे-मोटे सिद्धांतों का ज्ञान प्राप्त कर लेना ही आवश्यक होता है। आगे के पृष्ठों में इन्हीं सिद्धांतों की संक्षिप्त जानकारी दी जा रही हे।
जातक:- जिस व्यक्ति की जन्म-कुंडली पर विचार किया जा रहा है हो वह उस कुंडली का जातक कहलाता है।

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ताजिक:- वर्ष-कुंडली से फल जानने को रीति को ताजिक रीति कहते हैं।
ग्रह :- ज्योतिष में कुल 9 ग्रह माने गए हैं।
तिथि :- चन्द्रमा की एक कला को तिथि कहा गया है। इसका सूर्य और चन्द्रमा के अंतराशों पर से मान निकाला जाता है। आमावस्या से लेकर पूर्णिमा तक की तिथियां शुक्ल पक्ष की तथा पूर्णिमा के बाद प्रतिपक्ष से अमावस्या तक की तिथियां कृष्ण पक्ष की तिथियां कहलाती हैं। ज्योतिष शास्त्र में तिथियों की गणना शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से होती है।
तिथियों की संज्ञाएं
1, 6, 19 तिथियों का नाम ‘नन्दा’ है।
2, 7, 12 तिथियों का नाम ‘भद्रा’ है।
3, 8, 13 तिथियों का नाम ‘जया’ है।
4, 9, 14 तिथियों का नाम ‘रिक्ता’ है।
5, 10, 15 तिथियों का नाम ‘पूर्णा’ है।

*तिथियों के स्वामी*
एकम का स्वामी अग्नि, द्वितीया का ब्रह्मा, तृतीया की गौरी, चतुर्थी का गणेश, पंचमी का शेष, षष्ठी का कार्तिकेय, सप्तमी का सूर्य, अष्टमी का शिव, नवमी की दुर्गा, दशमी का काल, एकादशी के विश्वदेव, द्वादशी के विष्णु, त्रयोदशी के काम, चतुर्दशी के शिव, पूर्णमासी के चन्द्रमा तथा अमावस्या के स्वामी पितृदेव हैं।

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