बांग्लादेश के मतुआ मंदिर में पीएम मोदी,  बदल जाएगी बंगाल की हवा?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 26 और 27 मार्च को बांग्लादेश की दो दिवसीय यात्रा पर हैं। यहां पर वह यात्रा के दूसरे दिन ओराकंडी स्थित मतुआ मंदिर जाएंगे. इस यात्रा के साथ बंगाल की कई सीटों को जोड़कर देखा जा रहा है. दरअसल, बंगाल की तकरीबन 70 विधानसभा सीटों पर मतुआ समुदाय का असर माना जाता है. बंगाल में बीजेपी की ओर से सांसद शांतनु ठाकुर मतुआ समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं. बांग्लादेश के मतुआ मंदिर का बंगाल की राजनीति पर क्या असर है, आइए इस रिपोर्ट में देखते हैं.

मतुआ समुदाय की अहमियत

बंगाल चुनावों में मथुआ समुदाय का महत्व हमेशा से महत्वपूर्ण रहा है. 2019 लोकसभा चुनाव के पूर्व तक इस समुदाय का झुकाव तृणमूल कांग्रेस की तरफ रहा है. 2011 में पीआर ठाकुर के बेटे मंजुल कृष्णा को ममता बनर्जी कैबिनेट में रिफ्यूजी रीहैबिलेशन विभाग का मंत्री बनाया गया था. बाद में उनके भाई कपिल कृष्ण तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा चुनाव जीत कर सांसद बने. ममता बनर्जी ने इस समुदाय की भूमिका को देखते हुए मतुआ संघ का गठन किया था. पीआर ठाकुर की पत्नी बिनापाणी देवी से ममता बनर्जी का प्रगाढ़ व्यक्तिगत संबंध था. बिनापाणी देवी का अब निधन हो चुका है. उन्हें लोग बोरो मां के नाम से पुकारते थे.

अब बीजेपी मतुआ समुदाय को देश की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए सीएए को अपना कारगर हथियार बना रही है. 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बंगाल में लोकसभा चुनाव का प्रचार शुरू करने से पहले बोरो मां से आशीर्वाद लिया था. उनके पड़पोते शांतनु ठाकुर (मंजुल कृष्णा के बेटे) बोंगांव लोकसभा सीट से बीजेपी के सांसद हैं.
क्या है मतुआ महासभा या संप्रदाय ?

मतुआ माता या बड़ी मां के बारे में जानने से पहले मतुआ संप्रदाय, मतुआ महासंघ या संप्रदाय के बारे में कुछ जान लें. इस संप्रदाय की शुरुआत 1860 में अविभाजित बंगाल में हुई थी. मतुआ महासंघ की मूल भावना है चतुर्वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) की व्यवस्था को खत्म करना. यह संप्रदाय हिंदू धर्म को मान्यता देता है लेकिन ऊंच-नीच के भेदभाव के बिना. इसकी शुरुआत समाज सुधारक हरिचंद्र ठाकुर ने की थी. उनका जन्म एक गरीब और अछूत नामशूद्र परिवार में हुआ था. ठाकुर ने खुद को ‘आत्मदर्शन’ के जरिए ज्ञान की बात कही. अपने दर्शन को 12 सूत्रों के जरिए लोगों तक पहुंचाया. मतुआ महासंघ की मान्यता ‘स्वम दर्शन’ की रही है. मतलब जो भी ‘स्वम दर्शन’ या भगवान हरिचंद्र के दर्शन में भरोसा रखता है, वह मतुआ संप्रदाय का माना जाता है. धीरे-धीरे उनकी ख्याति वंचित और निचली जातियों में काफी बढ़ गई. संप्रदाय से जुड़े लोग हरिचंद्र ठाकुर को भगवान विष्णु और कृष्ण का अवतार मानते हैं. सम्मान में उन्हें श्री श्री हरिचंद्र ठाकुर कहते हैं.

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मतुआ संप्रदाय के संस्थापक श्रीश्री हरिचंद्र ठाकुर को फॉलोअर भगवान का अवतार मानते हैं.

कौन हैं ‘मतुआ माता’ या ‘बड़ी मां’ ?

आजादी के बाद मतुआ संप्रदाय की शुरुआत करने वाला ठाकुर परिवार भारत आ गया, और पश्चिम बंगाल में बस गया. हरिचंद्र ठाकुर की दूसरी पीढ़ी मतुआ संप्रदाय के केंद्र में थी. पूरा जिम्मा उनके पड़पोते प्रमथ रंजन ठाकुर पर था. प्रमथ की शादी बीणापाणि देवी से 1933 में हुई. बीनापाणि देवी को ही बाद में ‘मतुआ माता’ या ‘बोरो मां’ (बड़ी मां) कहा गया. बीनापाणि देवी का जन्म 1918 में अविभाजित बंगाल के बारीसाल जिले में हुआ था. आजादी के बाद बीणापाणि देवी ठाकुर परिवार के साथ पश्चिम बंगाल आ गईं. चूंकि बंगाल दो हिस्सों में बंट गया था, ऐसे में मतुआ महासभा को मानने वाले कई लोग पाकिस्तान के कब्जे वाले तत्कालीन पूर्वी बंगाल से भारत के पश्चिम बंगाल आ गए. नामशूद्र शरणार्थियों की सुविधा के लिए बीनापाणि देवी ने अपने परिवार के साथ मिलकर वर्तमान बांग्लादेश के बॉर्डर पर ठाकुरगंज नाम की एक शरणार्थी बस्ती बसाई. इसमें सीमापार से आने वालों खासतौर पर नामशूद्र शरणार्थियों को रखने का इंतजाम किया गया.

मतुआ संप्रदाय के संस्थापक के पड़पोते का विवाह बीनापाणि देवी से हुआ, इन्हें बाद में मतुआ माता या बड़ी मां कहा गया.
ठाकुरगंज की कोलकाता से दूरी तकरीबन 70 किलोमीटर है. अपने बढ़ते प्रभाव के चलते मतुआ परिवार ने राजनीति में एंट्री की. परमार्थ रंजन ठाकुर ने 1962 में पश्चिम बंगाल के नादिया जिले की अनुसूचित जनजाति के लिए रिजर्व सीट हंसखली से विधानसभा का चुनाव लड़ा. जीतकर विधानसभा पहुंचे. मतुआ संप्रदाय को मानने वालों और राजनैतिक हैसियत के चलते नादिया जिले के आसपास और बांग्लादेश के सीमावर्ती इलाके में मतुआ संप्रदाय का प्रभाव लगातार मजबूत होता चला गया. सन 1990 में प्रमथ रंजन ठाकुर की मृत्यु हो गई. इसके बाद बीनापाणि देवी ने मतुआ महासभा के सलाहकार की भूमिका संभाली. संप्रदाय से जुड़े लोगों ने भी उन्हें भक्तिभाव से देखा. देवी की तरह मानने लगे. 5 मार्च 2019 को मतुआ माता बीनापाणि देवी का निधन हो गया. प. बंगाल सरकार ने उनका अंतिम संस्कार पूरे आधिकारिक सम्मान के साथ करवाया. गन सैल्यूट भी दिया गया.

ठाकुरगंज के शरणार्थी शिविर ने मतुआ संप्रदाय की प. बंगाल में जड़ें और मजबूत कर दीं.

मतुआ महासभा के आगे सब नतमस्तक:

मतुआ महासभा की बढ़ती ताकत के आगे सभी नतमस्तक होते रहे. सत्तर के दशक के आखिरी वर्षों में पश्चिम बंगाल में कांग्रेस की ताकत घटी, और लेफ्ट मजबूत हुआ. लेफ्ट की ताकत बढ़ने में मतुआ महासभा का भी बड़ा हाथ रहा. 1977 के चुनाव से पहले प्रमथ रंजन ठाकुर का लेफ्ट को समर्थन मिला. बांग्लादेश से लगे इलाकों और महासभा के भक्तों ने उस पार्टी के लिए जमकर वोट किया, जिसे ठाकुर परिवार का समर्थन था. सन 1977 में लेफ्ट की सरकार बनी, जो 2011 तक शासन में रही.

राजनीतिक विरासत:

हरिचंद ठाकुर के वंशजों ने मतुआ संप्रदाय की स्थापना की थी. नॉर्थ 24 परगना जिले के ठाकुर परिवार का राजनीति से लंबा संबंध रहा है. हरिचंद के प्रपौत्र प्रमथ रंजन ठाकुर 1962 में कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में पश्चिम बंगाल विधान सभा के सदस्य बने थे. प्रमथ की शादी बीणापाणि देवी से 1933 में हुई. बीनापाणि देवी को ही बाद में ‘मतुआ माता’ या ‘बोरो मां’ (बड़ी मां) कहा गया. बीनापाणि देवी का जन्म 1918 में अविभाजित बंगाल के बारीसाल जिले में हुआ था. आजादी के बाद बीणापाणि देवी ठाकुर परिवार के साथ पश्चिम बंगाल आ गईं.

प्रमथ रंजन ठाकुर की विधवा शतायु बीणापाणि देवी आखिर तक इस समुदाय के लिए भाग्य की देवी बनी रही. हाल के दिनों में ठाकुर परिवार के कई सदस्यों ने राजनीति में अपना भाग्य आजमाया है और मतुआ महासंघ में अपनी प्रतिष्ठा का इस्तेमाल किया है.

नामशूद्र शरणार्थियों की सुविधा के लिए बीनापाणि देवी ने अपने परिवार के साथ मिलकर वर्तमान बांग्लादेश के बॉर्डर पर ठाकुरगंज नाम की एक शरणार्थी बस्ती बसाई. इसमें सीमापार से आने वालों खासतौर पर नामशूद्र शरणार्थियों को रखने का इंतजाम किया गया.

मतुआ परिवार ने अपने बढ़ते प्रभाव के चलते राजनीति में एंट्री ली. 1962 में परमार्थ रंजन ठाकुर ने पश्चिम बंगाल के नादिया जिले की अनुसूचित जनजाति के लिए रिजर्व सीट हंसखली से विधानसभा का चुनाव जीता. मतुआ संप्रदाय की राजनैतिक हैसियत के चलते नादिया जिले के आसपास और बांग्लादेश के सीमावर्ती इलाके में मतुआ संप्रदाय का प्रभाव लगातार मजबूत होता चला गया.

प्रमथ रंजन ठाकुर की सन 1990 में मृत्यु हो गई. इसके बाद बीनापाणि देवी ने मतुआ महासभा के सलाहकार की भूमिका संभाली. संप्रदाय से जुड़े लोग उन्हें देवी की तरह मानने लगे. 5 मार्च 2019 को मतुआ माता बीनापाणि देवी का निधन हो गया. प. बंगाल सरकार ने उनका अंतिम संस्कार पूरे आधिकारिक सम्मान के साथ करवाया.

2010 में ममता बनर्जी से बढ़ी नजदीकी:

माता बीनापाणि देवी की नजदीकी साल 2010 में ममता बनर्जी से बढ़ी. बीनापाणि देवी ने 15 मार्च 2010 को ममता बनर्जी को मतुआ संप्रदाय का संरक्षक घोषित किया. इसे औपचारिक तौर पर ममता बनर्जी का राजनीतिक समर्थन माना गया. ममता की तृणमूल कांग्रेस को लेफ्ट के खिलाफ माहौल बनाने में मतुआ संप्रदाय का समर्थन मिला और 2011 में ममता बनर्जी प. बंगाल की चीफ मिनिस्टर बानी. .
मतुआ समुदाय पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) से जुड़ा है. 1870 में पूर्वी बंगाल के सफलडंगा में हरिचंद ठाकुर की अगुआई में एक धार्मिक आंदोलन हुआ था . आगे चलकर 20वीं सदी में हरिचंद ठाकुर के बेटे गुरुचंद ने उस धार्मिक आंदोलन को सामाजिक और राजनीतिक रूप से मजबूत किया. इसका परिणाम यह रहा कि 1915 में मतुआ फेडरेशन की स्थापना हुई, जिसमें गुरुचंद के पड़पोते बैरिस्टर रंजन ठाकुर ने बड़ी भूमिका निभाई. इस समुदाय के जो किसान परिवार थे उन्होंने 1950 के दशक में पूर्वी बंगाल से पलायन करना शुरू किया जो बांग्लादेश के गठन होने तक चलता रहा.

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मतुआ समुदाय का इतिहास:

पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बंगलादेश) से बड़ी संख्या में मतुआ समुदाय के लोग बंगाल पहुंचे और आज यह पश्चिम बंगाल में दूसरा सबसे बड़ा समुदाय है. मतुआ लोग उत्तर और दक्षिण 24 परगना जिले में बड़ी तादाद में हैं. इसके अलावा बंगाल के अन्य सीमाई जिले नादिया, हावड़ा, कूचबिहार और मालदा में बहुतायत संख्या में निवास करते हैं. सरकारी सूत्रों की मानें तो बंगाल में 17 प्रतिशत मतदाता इसी समुदाय से आते हैं. हालांकि इस समुदाय के नेता इस आंकड़े को 20 प्रतिशत बताते हैं. इस समुदाय के हाथ में बंगाल कुल विधानसभा सीटें 294 में से 40-45 सीटों की जीत-हार पर कब्जा होता है. इसके अलावा 30 सीटें ऐसी हैं जिस पर अप्रत्यक्ष तौर पर अपना प्रभाव रखते हैं.

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पूर्वी बंगाल के बंटवारे से ठीक पहले पीआर ठाकुर ने कांग्रेस जॉइन कर ली थी लेकिन 1984 में पार्टी छोड़ दी और उन्होंने अपना पूरा समय मतुआ समुदाय को संगठित करने में लगा दिया. पीआर ठाकुर ने राजनीति से अलग रहते हुए धार्मिक-सामाजिक स्तर पर अपने समुदाय को संगठित करने का काम किया.
मतुआ संप्रदाय को मानने वालों में सबसे ज्यादा संख्या उस समाज की है, जिससे इसका उदय हुआ. मतलब नामशूद्र समाज. 1971 में नामशूद्र समाज के लोगों की संख्या राज्य की कुल आबादी की 11 फीसदी थी. 2011 में यह बढ़कर 17 फीसदी तक हो गई. प. बंगाल की जनसंख्या 9 करोड़ से ज्यादा है, ऐसे में तकरीबन 1.5 करोड़ की आबादी नामशूद्र समाज की है. नामशूद्र के अलावा दूसरे दलित वर्ग भी मतुआ संप्रदाय से जुड़े हैं. एक अनुमान के मुताबिक, प. बंगाल में मतुआ संप्रदाय के पास करीब 2.5 करोड़ का वोटबैंक है. बनगांव के इलाके में मतुआ समुदाय के वोटरों का प्रतिशत 65 से 67 फीसदी है. प. बंगाल की दूसरी 10 लोकसभा सीटों पर भी उनकी अच्छी खासी संख्या है. ये 10 लोकसभा सीटें हैं- कृष्णानगर, रानाघाट, मालदा उत्तरी, मालदा दक्षिणी, बर्धमान पूर्वी, बर्धमान पश्चिमी, सिलिगुड़ी, कूच बिहार, रायगंज और जॉयनगर. इन सभी सीटों पर मतुआ समुदाय के वोटरों की संख्या औसतन 35 से 40 फीसदी मानी जाती है.

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इसीलिए, वोटों का गणित यही कहता है कि मतुआ संप्रदाय जिस पार्टी के नाम पर मुहर लगा दे, उसका इलेक्शन जीतना तय माना जाता है.
इधर केंद्र की एनडीए सरकार सीएए का कानून ले आई. इसमें मुस्लिमों को छोड़कर बाकियों को नागरिकता देने का प्रावधान है. इस कानून ने भारत में आकर बसे नामशूद्र समाज की समस्या काफी हद तक खत्म कर दी है. यह एक तरह से मतुआ संप्रदाय की मांग पूरी होने जैसा है. बीजेपी भी अब इसे ऐसे ही पेश करना चाहती है कि उसने मतुआ संप्रदाय की बड़ी मांग को सीएए- (प्रस्तावित एनआरसी) कानून के जरिए पूरा कर दिया है. अमित शाह के प. बंगाल के दौरे में मतुआ परिवार के साथ लंच करने को भी एक संदेश की तरह देखा जा रहा है. पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस की तरह बीजेपी भी जानती है कि अगर उसे प. बंगाल में पैर जमाने हैं तो मतुआ संप्रदाय आवश्यक्ता पड़ने वाली है.
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल लोकसभा चुनाव के दौरान मतुआ समुदाय के 100 साल पुराने मठ बोरो मां बीणापाणि देवी से आशीर्वाद प्राप्त करके अपने बंगाल चुनाव अभियान की शुरुआत की थी. ममता बनर्जी के वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए यह बहुत सधी हुई चाल थी. इसके तहत भारतीय जनता पार्टी ने बोरो मां के पोते शांतनु ठाकुर को बोंगन लोकसभा सीट से उतारा. मतुआ वोट पाने की यह रणनीति काम कर गई.


जहाँ एक ओर मतुआ सम्प्रदाय का नागरिकता संशोधन कानून तथा एनआरसी के प्रति भाजपा की प्रतिबद्धता के कारण लगाव बढ़ा है साथ ही ममता बनर्जी की अल्पसंख्यक समुदाय की तुष्टिकरण नीति के कारण हिन्दुओं के त्यौहार के अवसर पर तरह-तरह के बंदिश लगाकर बाधा पहुँचाने से हिन्दुओं का बड़ा तबका नाराज है तथा कांग्रेस और कम्युनिस्ट की भी अल्संख्यक तुष्टिकरण की नीति से क्षुब्ध है, वहीँ दूसरी तरफ मुस्लिम वोट बैंक में ओवैसी के सेंधमारी के कारण तृणमूल की शक्ति का घटना तय है.

अतएव आगामी बंगाल विधान सभा चुनाव में भाजपा का 200 से अधिक सीटों पर विजयी होना निश्चित है.

3 thoughts on “बंगाल चुनाव: “मतुआ” दिलाएगा सत्ता भाजपा को:: अशोक चौधरी”
  1. […] http://thenamastebharat.in/bengal-matua/ पश्चिम बंगाल में औद्योगिक क्षेत्र के तौर पर परिचित हुगली जिले में भी इस बार चुनाव आयोग ने अन्य जिलों की तरह दो चरणों में मतदान कराने की घोषणा की है। मालूम हो कि हुगली जिले में कुल तीन महकमे हैं। इनमें कुल 18 विधानसभा सीटे हैं। इस बार छह अप्रैल को यहां की जंगीपाड़ा, हरिपाल, धनियाखाली, तारकेश्वर, पुरसुरा, आरामबाग, गोघाट तथा खानाकुल विधानसभा सीटों पर वोट पड़ेंगे जबकि 10 अप्रैल को हुगली के उत्तरपाड़ा, श्रीरामपुर, चांपदानी, बहुचर्चित सिंगुर, चंदननगर, चुंचुड़ा, बालागढ़, पांडुआ, सप्तग्राम तथा चंडीतल्ला विधानसभा सीटों पर मतदान की घोषणा की गई है। […]

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