संसार के भीड़ के कोलाहल में
तन और धन चलता जा रहा है
खामोशी से मौन होकर बिन बोले
उम्र से एक-एक दिन निकलता जा रहा है
क्या मिला क्या खोया कुछ याद नहीं
कुछ पाने की अब कोई फरियाद नहीं
सब कुछ तो है मेरे पास
मेरी सांसे मेरी धड़कन मेरे एहसास
इससे बड़ी दौलत क्या होगी
थम जाएगी जिस दिन सांसे
जिंदगी को जिंदगी से उस दिन मोहलत होगी
प्रेम मोहब्बत मान अपमान
की गठरी कब तक ढोया जाएगा
इतनी बोझ लेकर अब ना सोया जाएगा
थक सा गया है अब यह अंग अंग
किसे बताऊं अपनी बातें अंतरंग
मिलना बिछड़ना सब एक खेला है
सच बताओ इंसान इस भीड़ में भी निपट अकेला है
डॉ बीना सिंह “रागी”