बूढ़ा-बिया का उत्सव
1947 में अंग्रेजों के जाने के बाद भी उनकी छोड़ी गयी कई समस्याएं बनी रहीं। पूर्वोत्तर भारत भी ऐसी ही एक समस्या से जूझ रहा था। अंग्रेजों ने ठंडा मौसम और उपजाऊ खाली धरती देखकर वहां चाय के बाग लगाये। ये बाग मीलों दूर तक फैले होते थे। उनमें काम के लिए वे बंगाल, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ़, तेलंगाना आदि से हजारों वनवासी पुरुष और स्त्रियों को पकड़कर ले आये। इन्हें बिना छुट्टी बंधुआ मजदूर जैसे काम करना पड़ता था। इन्हें नशीली चाय दी जाती थी, जिससे ये सदा बीमार बने रहें।
अंग्रेजों ने बागों के बीच बसाये इनके गांवों में चर्च तो बनाये, पर मंदिर और स्कूल नहीं। स्कूलों के अभाव में बच्चे पढ़ नहीं पाते थे। मंदिर न होने से जन्म, विवाह या मृत्यु के क्रियाकर्म कहां हों, ये बड़ी समस्या थी। अंग्रेज उन्हें चर्च में बुलाते थे। कुछ लोग बहकावे में आकर वहां जाने लगे और ईसाई बन गये; पर अधिकांश वनवासी धर्म पर दृढ़ थे। धीरे-धीरे पुरुष और स्त्रियां बिना विवाह के ही साथ रहने लगे। सब जानते थे कि ये पति-पत्नी हैं; पर विधिवत विवाह न होने से महिलाएं सिंदूर या मंगलसूत्र का प्रयोग नहीं करती थीं।
कई पीढि़यां ऐसे ही बीतने से और भी कई समस्याएं पैदा हो गयीं। बच्चे अपने पिता का नाम नहीं लिखते थे। लगभग 60 लाख की जनसंख्या वाले इस वर्ग की सरकारों ने भी उपेक्षा ही की। ये लोग मुख्यतः विश्वनाथ चाराली, कोकराझार, उदालगुडी, शोणितपुर, नौगांव, नार्थ लखीमपुर, गोलाघाट, जोरहाट, शिवसागर, डिब्रूगढ़ और तिनसुखिया जिलों में रहते हैं। इनके गांव बंगलादेश की सीमा पर हैं; उधर से गोली भी चलती रहती है। गो तस्करी और घुसपैठ की जानकारी ये ही पुलिस और सेना को देते हैं। मुख्यतः मंुडा, ओरांव, खारिया, सन्थाल आदि जनजातियों के ये वीर सीमा और धर्म के रक्षक हैं।
1947 में अंग्रेज तो चले गये; पर ईसाई मिशनरी नहीं गये। जब संघ, विद्या भारती, वनवासी कल्याण आश्रम, सेवा भारती, विश्व हिन्दू परिषद, विवेकानंद केन्द्र आदि हिन्दू संस्थाएं वहां पहुंचीं, तो उनका ध्यान इस पर गया। अतः ऐसे बुजुर्गों के सामूहिक विवाह (बूढ़ा-बिया) की योजना बनी। इसमें देश के कई धर्माचार्य और समाजसेवी भी जुड़ गये। पहला कार्यक्रम 2009 में हुआ, जिसमें 12 जोड़ों के विवाह कराये गये। हर जोड़े को वस्त्र, मंगलसूत्र, शृंगार सामग्री, कंबल, चटाई, बर्तन, चंदन का पौधा तथा देव प्रतिमाएं दी गयीं।
पूरे समाज में इसका व्यापक स्वागत हुआ। अतः पांच फरवरी, 2015 को एक विशाल विवाह समारोह का आयोजन हुआ। इसमें 467 जोड़े शामिल हुए। बरसों से साथ रहते हुए वे अघोषित रूप से थे तो पति-पत्नी ही; पर आज अग्नि और समाज के सम्मुख फेरे लेकर विधिवित विवाहित हो गये। अब हर साल ये कार्यक्रम हो रहे हैं। इसके चलते लगभग सात हजार ऐसे विवाह सम्पन्न हो चुके हैं। इससे पूरे समाज में उत्साह का संचार हुआ है। सिंदूर और मंगलसूत्र पहने महिलाओं के चेहरे पर अब विशेष चमक दिखायी देती है।
इन कार्यक्रमों में तीन पीढ़ी के विवाह एक साथ होते हैं। एक ही मंडप में दादा, बेटे और पोते का विवाह होते देखना सचमुच दुर्लभ दृश्य होता है। विवाह की वेदी पर बैठी कई महिलाओं की गोद में दूध पीते बच्चे होते हैं। दादा की शादी में पोते और पोते की शादी में दादा-दादी नाचते हुए आते हैं। असम की परम्परा के अनुसार सात दिन तक चलने वाली हल्दी, टीका, कन्यादान तथा विदाई आदि वैवाहिक रस्में पूरे विधि विधान से की जाती हैं।
इस बूढ़ा-बिया योजना के अन्तर्गत हिन्दू संस्थाएं तथा संत विवाह से पहले और बाद में भी उनके बीच लगातार जा रहे हैं। इससे वहां शराब के बदले बचत को प्रोत्साहन मिल रहा है। सैकड़ों स्कूल और छात्रावास खोले गये हैं। इससे हिन्दुत्व का प्रसार हो रहा है और मिशनरियों के पांव उखड़ रहे हैं।
अशोक चौधरी "प्रियदर्शी"
Ashok Kumar Choudhary is a retired banker who has wide experience in handling rural banking, agriculture and rural credit. He is also a Trade Unionist and has held a leadership position in Bharatiya Mazdoor Sangh, trade wing of RSS and formaly he has been the chairman of Regional Advisory Committe, DT National Board of Workers Education. He in past he hold the post of Joint State President of National Human Rights Organization.