मेरे एक मुस्लिम मित्र ने सादगी भरे अंदाज में मुझसे सवाल पूछा कि – आप सेक्युलर नहीं हैं ?
मैंने उसे जो जवाब दिया था, वो यहां प्रस्तुत कर रहा हूँ…

आपके सवाल का सीधा सा उतने ही सादे अंदाज़ में जवाब दे रहा हूँ कि, जी नहीं, *”मैं धर्म सापेक्ष हूं, धर्म निरपेक्ष नहीं।”*
दरअसल जब मैं बच्चा था, कोई गीत भजन और प्रवचनों की फिलासफी नहीं समझता था, लेकिन धार्मिक सम्मेलन और प्रवचनों में किसी परिवारजन के साथ जाता था तो कथा के समापन पर समवेत स्वरों में यह प्रार्थना की जाती थी कि –
*”धर्म की जय हो,*
*अधर्म का नाश हो।*
*प्राणीयों में सद्भावना हो,*
*विश्व का कल्याण हो”।*
सीधी सरल भाषा में कही गई बात मेरी समझ में आ जाती थी, और दोनों हाथ ऊपर उठाकर मैं भी वही दुहराता था।धीरे धीरे मेरे अवचेतन मष्तिष्क में ये बात पैठती गई। किसी भी प्रवचन या हमारे धार्मिक अनुष्ठानों में जाकर आप आज भी सुन सकते हैं कि कार्यक्रम के अंत में प्राणियों में सद्भावना और विश्व कल्याण की दुआ मांगी जाती है।यह दुआ सार्वभौम प्रकृति की होती है, जिसमें ये नहीं कहा जाता कि जो सूर्य को अर्घ्य न देगा, या जो मूर्ति पूजा नहीं करेगा, उसका कल्याण न हो।
उसमें ये नहीं कहा जाता कि जो नमाज पढ़ेगा या जीव की कुर्बानी देगा, उसका कल्याण न हो।
यह दुआ मेरे जीवन की पहली धार्मिक सीख थी, जिसे मैंने सीखा। अब आप ही बताइए ऐसे धर्म को छोड़कर मैं धर्म निरपेक्ष कैसे हो जाऊं।
फिर और बड़ा हुआ। 10 साल की उम्र में जब मैं छठीं कक्षा में पहुंचा तो संस्कृत विषय का सुभाषित पढ़ा –
*सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे संतु निरामयाः।*
सबके कल्याण की कामना करता है ये श्लोक कोई भेदभाव नहीं कि जो फलां तरीके से उपासना करेगा, वही सुखी और निरोगी रहेगा। ऐसा नहीं कि जो नमाज पढ़े, या किसी निराकार ईश्वर को पूजे वही स्वस्थ रहेगा, निरोगी रहेगा। निराकार ब्रम्ह और मूर्तिपूजक में कोई भेद नहीं, सबके कल्याण की कामना।
फिर और बड़ा हुआ तो ये मंत्र पढ़ा –
*अयं निजः, परोवेति, गणनां लघु चेतसाम।*
*उदार चारितानाम तु वसुधैव कुटुम्बकम।*
(यह मेरा है, ये पराया है, छोटी बुद्धि वाले ऐसा सोचते हैं। उदार चित्त व्यक्ति के लिए सारी पृथ्वी ही एक कुटुंब है)।

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और बड़ा हुआ, गीता पढ़ने लगा। गीता में पढ़ा –
*”परित्राणाय साधूनां, विनाशाय च दुष्कृताम”*
इसमें कहीं भी उपासना पद्धति के आधार पर परित्राण और विनाश की बात नहीं की गयी।
अब इससे भी बड़ी धर्मनिरपेक्षता कहीं हो तो दिग्दर्शन दीजियेगा, मैं भी धर्म सापेक्ष रहने की बजाय धर्म निरपेक्ष होने की सोचूंगा।

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